Sunday, August 30, 2009

व्यंग्य : आओ मिलकर देखें !!!!!!!!!!!

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


वर्षों से हम इधर-उधर की अनेक घट्नाऐं देखते चले आ रहे हैं। कभी आपने सोचा है कि यह देखने दिखाने की प्रक्रिया आखिर है क्या ? साइंस कहती है कि जो भी वस्तु आपकी आँखों के सामने है, उसका प्रतिबिम्ब आँख के अंदर बनता है और हम देख पाते हैं। लेकिन मेरा मत हमेशा इसके विपरीत रहा है और हमेशा रहेगा। मेरा मानना है कि कई बार आप उन सभी वस्तुओं को भी देख पाते हैं, समझ लेते हैं, जो आपकी दृष्टि से सर्वथा दूर हैं या दूर रही हैं। अब देखिये मेरी आँखें आपको इन शब्दों को पढ़ते हुऐ देख रही हैं, सही है कि नहीं ?..।

देखना भी कई तरह का होता है, जैसे खुली आँखों से देखना, बंद आँखों से देखना, सोते सोते देखना, देखकर भी न देखना आदि। देखा साइंस फ़ेल हो गयी न!। अगर आप सरकारी महकमें में हैं तो सोते सोते देखना, देखकर भी न देखना ही आपके हित में है।

कुछ सालों पहले एक आवाज सुनाई देती थी, हमने देखा है....हम देख रहे हैं...हम देखेंगे...वगैरह वगैरह। अब क्या देखा...देखा भी कि नहीं...मालूम नहीं। बहरहाल मैंने मन की आँखों से बहुत कुछ देखा है। अभी एफ़एम पर गाना आ रहा था, आओ बच्चों तुम्हें दिखाऐं झांकी हिन्दुस्तान की....मेरे हाथ में गर्म चाय का प्याला, मेज पर पेपर, पेपर में हवाला, बोफ़ोर्स, पशुपालन, उपहार सिनेमा, डायरी, एनरान, दाउद, अंडरवर्ल्ड, गोधरा, आतंकवाद, महामारी, भ्रष्टाचार, बलात्कार, टूटी सड़्कें, खुले मेनहोल्स, पानी की कमीं, सीवर के पानी की घरों में सप्लाई, घंटों बिजली की सप्लाई गुल, मिलावटी दूध, ....वाह क्या झांकी है। दिल खुश हो गया। मुझे विश्वास ही नहीं बल्कि यकीन है कि हमने आजादी की लड़ाई इसी दिन के लिये लड़ी थी। अंग्रेज हमें यह सब कहां दे पाते!

मैं गांधीवाद से प्रेरित हूं, उनका भक्त हूं। वैसे मेरी और उनकी राशि भी एक ही है। उनके तीन बंदर महान हैं। इन तीनों में बंद आंखों वाला मुझे ज्यादा प्रिय है। "बुरा मत देखो" गांधी का सिद्धांत था, मेरा भी है। मैं टेलीविजन नहीं देखता। लेसर कार्यक्रम नहीं देखे। मैंने जैन साहब को नहीं देखा, न उनकी डायरी, न बिहार के पशुपालन विभाग को। एनरान प्लांट मैंने क्या, बहुतों ने नहीं देखा। दाउद को किसी ने नहीं देखा। अगर यह सब कुछ नहीं देखा तो गलत क्या है ? बुरा क्या है ? हमें सिर्फ़ कर्म करना है और हम कर रहे हैं। फल की चिंता हमें नहीं करनी है। हमारी सरकार और नेताओं ने बुरा न देखने में पीएचडी कर रखी है। वह सिर्फ उपलब्धियां गिनाने में विश्वास रखती है।

कितना कुछ कहो, अब थोड़ा फ़र्क तो पड़ता ही है। जैन साहब की डायरी के बाद बहुत लोगों का मोह डायरी से भंग हो गया था। जैसे कुछ सालों पहले सूटकेस से हो गया था। सोचता हूं कि इन सब से अच्छे तो हमारे पांचाग और संदूक ही थे, कभी इस तरह बदनाम तो न हुए। अब यह जैन साहब की मर्जी थी कि वो किसको क्या देते हैं। मुझे भी तो कुछ नहीं मिला, लेकिन मैंने तो कोई हल्ला नहीं मचाया। पता नहीं लोगों को दूसरों के काम में टांग फंसानें की आदत क्यों होती है। अरे जैन साहब ही थे क्या अकेले..., बोफोर्स, स्विस बैंक, एनरान, सरकारी टेंडर, यमुना सफ़ाई, हर्षद मेहता, दाउद भाई....किसी को भी चुन लो। इन सभी के दर से आज तक कोई भी खाली हाथ नहीं लौटा।

यह आरोप तो बिल्कुल बेबुनियाद है कि बिहार में पशुपालन विभाग में अरबों का घोटाला हुआ। अरे साहब मन की आखों से देखिये, पैसा निकाला गया पशुओं के लिये, तो ठीक जगह ही तो उपयोग हो रहा है। क्या आप अब भी उनको मनुष्य की श्रेणी में रखना चाहते हैं ?। आप और मैं तो इस तरह से पैसा लेने से रहे, इज्ज़त का सवाल है भाई। आत्म सम्मान भी तो किसी चिड़िया का नाम है। मैंने तो सोच लिया है कि जिस दिन भी यह महसूस हुआ कि मैं इंसानियत की श्रेणी से नीचे गिर गया हूं तो मुर्गी, मछ्ली, मधुमक्खी, सुअर, गधा, कुत्ता, गाय, भैंस पशुपालन ही क्या कोई भी पालन जैसे अनाथालय क्यों न हो, उसी के संदर्भ में अपना और अपनों का पालन शुरु कर दूंगा। यह कोई अपराध नहीं है। सभी पशुओं को अपने तरीके से जीने की पूरी आज़ादी है। तुम मनुष्यों को यह हक किसने दिया कि हमारी आज़ादी में खलल डालो। मुझे तो उल्टा आश्चर्य इस बात पर है कि पशुओं के पालन के लिये इतना कम बजट कि अलग से पैसा निकलवाना पड़ा। शर्मनाक है यह स्थिति, और मेरा सरकार से अनुरोध है कि हम सभी पशुओं पर कोई कार्यवाही न की जाय। इस बात की जांच के लिये एक उच्च स्तरीय समिति बनायी जाये कि पशुपालन का बजट ऊंट के मुंह में जीरे समान क्यों रखा गया है। पशुधन के लिये इतना कम धन, यह इंसाफ नहीं है।

अब देखना यह है कि क्या देखा जाता है और क्या दिखाया। हम तो आंख बंद कर अपने इष्टदेव से प्रार्थना ही कर सकते हैं। आओ मिलकर देखें कि आगे क्या होता है.......

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